संस्कृति >> 108 दिव्य शक्तिपीठ 108 दिव्य शक्तिपीठबनवारी लाल कंछल
|
7 पाठकों को प्रिय 428 पाठक हैं |
108 दिव्य शक्तिपीठ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जिस प्रकार देवों के देव महादेव जन-उत्थान एवं जनकल्याण हेतु भूमडंल के भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थापित हुए हैं, उसी प्रकार दयावान, करुणामयी मां भगवती जनकल्याण, जन-उत्थान एवं जन-मन के ज्ञानवर्द्धन हेतु ब्रह्मांड में भिन्न-भिन्न स्थानों पर शक्तिपीठों के रूप में स्थापित हैं। यह शक्तिपीठ भक्तों को ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करने वाले हैं।
एक बार राजा दक्ष ने हजारों वर्षों तक तपस्या करके मां पार्वती को प्रसन्न किया और उनसे अपने यहां पुत्री रूप में जन्म लेने का वरदान मांगा। भगवती शिवा ने कहा, ‘प्रजापति दक्ष ! पूर्वकाल में महादेव ने मुझसे पत्नी के रूप में प्राप्त होने की प्रार्थना की थी। अतः मैं तुम्हारी पुत्री के रूप में जन्म लेकर भगवान महादेव की पत्नी बनूंगी।’ आशीर्वाद के अनुसार मां पार्वती ने राजा दक्ष के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया और विवाह योग्य होने पर, राजा दक्ष के न चाहने पर भी, उनका स्वयंवर भगवान शिव के साथ संपन्न हुआ।
प्रजापति दक्ष भगवान शिव को श्मशानवासी मानकर उनसे द्वेष करने लगे। सती के अपने पति के साथ चले जाने पर राजा दक्ष का दिव्य ज्ञान लुप्त हो गया। राजा दक्ष ने भगवान शिव को नीचा दिखाने के लिए एक महायज्ञ का आयोजन भी किया जिसमें सभी देवताओं को निमंत्रित किया गया परंतु शिव और सती को निमंत्रण नहीं भेजा गया। देवर्षि नारद द्वारा सती को जब ज्ञात हुआ कि उनके पिता यज्ञ कर रहे हैं, तो उन्होंने उसमें जाने की भगवान शिव से अनुमति मांगी। भगवान शिव के बार-बार मना करने पर भी सती न मानीं और शिव से आज्ञा लेकर दक्ष-भवन की ओर चल पड़ीं।
दक्ष-भवन में माता प्रसूती ने तो सती का आदर-सत्कार किया परंतु अन्य भाई-बहनों ने सती की उपेक्षा की। इसके बाद देवी सती यज्ञ-मंडप में पहुंचीं। वहां शिव का भाग न देखकर सती ने रुष्ट होकर महाकाली का भयंकर रूप धारण कर लिया।
राजा दक्ष ने काली के रूप में सती को देखकर भगवान शिव का उपहास करते हुए उन्हें यज्ञ में सम्मिलित होने के अयोग्य बताया। अपने पिता दक्ष के द्वारा शिव के प्रति द्वेष, व्यंग्यपूर्ण और निंदाभरे शब्दों को सुनकर अतिक्रुद्ध सती ने उग्र होकर अपने ही समान रूप वाली छाया सती को उत्पन्न किया और उन्हें यज्ञ-कुंड का नाश करने का आदेश देकर अंतर्धान हो गईं।
छाया सती अट्टहास करते हुए देखते-देखते यज्ञ की अग्नि में प्रवेश कर गईं। उनके ऐसा करते ही वर्षा होने लगी और यज्ञ-कुंड की अग्नि बुझ गई। सभी देवता भयभीत हो गए। यज्ञ-मंडप श्मशान जैसा वीरान हो गया। अहंकारी राजा दक्ष ने पुनः यज्ञ शुरू करवाया, परंतु वह यज्ञ पूर्ण न हो सका। देवर्षि नारद द्वारा सती के भस्म होने का समाचार सुनकर भगवान शिव क्रोध और शोक से द्रवित हो गए। उन्होंने अपने सेनापति वीरभद्र को राजा दक्ष को दंडित करने का आदेश दिया। वीरभद्र ने दक्ष-यज्ञ को नष्ट कर दिया और दक्ष का सिर काट डाला। अन्य देवगणों को भी, जो महादेव भगवान शिव की निंदा सुन रहे थे, वीरभद्र ने दंड दिया। दक्ष-यज्ञ के रक्षक भगवान विष्णु को भी वीरभद्र से पराजित होना पड़ा। उनकी गदा चूर-चूर हो गई और सुदर्शन चक्र वीरभद्र के गले में सुशोभित हो गया। भगवान विष्णु हारकर सिर झुकाए खड़े रहे।
सती के शोक में भगवान शिव सामान्य पुरुष की तरह द्रवित हो रहे थे। उनकी आंखों से अविरल अश्रुधाराएं बह रही थीं। भगवान शिव ने यज्ञ-मंडप में जाकर सती के छाया शरीर को देखा। उन्होंने उसे अपने कंधे पर धारण कर लिया और पागलों की भांति विचरण करते हुए नृत्य करने लगे। उनके तांडव नृत्य से प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो गई। ऐसा देखकर देवताओं के आग्रह पर भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से छाया सती के शरीर के टुकड़े करने शुरू कर दिए। इस प्रकार छाया सती के शरीर के अग-प्रत्यग धरातल पर गिरने से 51 शक्तिपीठ बन गए।
शक्तिपीठ केवल वहीं हैं जहां मां सती के अंग-प्रत्यंग गिरे हैं। जिन स्थानों पर मां के आभूषण अथवा वस्त्र गिरे हैं-वहां पर उपपीठों की स्थापना हुई है, जो केवल 29 हैं। यहां शक्ति तत्वों का पूर्ण प्रभाव है।
सती के भिन्न-भिन्न अगं जिन स्थानों पर गिरे हैं वहां उन-उन शक्तियों की सिद्धि सरलता से होती है। जहां-जहां माता के अंग गिरे, वे स्थान दिव्य शक्तियों के केंद्र माने जाते हैं। वहां भी शक्ति तत्व का प्रकटीकरण सर्वाधिक है। अतः उन पीठों पर सिद्धियां शीघ्र प्राप्त होती हैं।
एक बार राजा दक्ष ने हजारों वर्षों तक तपस्या करके मां पार्वती को प्रसन्न किया और उनसे अपने यहां पुत्री रूप में जन्म लेने का वरदान मांगा। भगवती शिवा ने कहा, ‘प्रजापति दक्ष ! पूर्वकाल में महादेव ने मुझसे पत्नी के रूप में प्राप्त होने की प्रार्थना की थी। अतः मैं तुम्हारी पुत्री के रूप में जन्म लेकर भगवान महादेव की पत्नी बनूंगी।’ आशीर्वाद के अनुसार मां पार्वती ने राजा दक्ष के घर में पुत्री के रूप में जन्म लिया और विवाह योग्य होने पर, राजा दक्ष के न चाहने पर भी, उनका स्वयंवर भगवान शिव के साथ संपन्न हुआ।
प्रजापति दक्ष भगवान शिव को श्मशानवासी मानकर उनसे द्वेष करने लगे। सती के अपने पति के साथ चले जाने पर राजा दक्ष का दिव्य ज्ञान लुप्त हो गया। राजा दक्ष ने भगवान शिव को नीचा दिखाने के लिए एक महायज्ञ का आयोजन भी किया जिसमें सभी देवताओं को निमंत्रित किया गया परंतु शिव और सती को निमंत्रण नहीं भेजा गया। देवर्षि नारद द्वारा सती को जब ज्ञात हुआ कि उनके पिता यज्ञ कर रहे हैं, तो उन्होंने उसमें जाने की भगवान शिव से अनुमति मांगी। भगवान शिव के बार-बार मना करने पर भी सती न मानीं और शिव से आज्ञा लेकर दक्ष-भवन की ओर चल पड़ीं।
दक्ष-भवन में माता प्रसूती ने तो सती का आदर-सत्कार किया परंतु अन्य भाई-बहनों ने सती की उपेक्षा की। इसके बाद देवी सती यज्ञ-मंडप में पहुंचीं। वहां शिव का भाग न देखकर सती ने रुष्ट होकर महाकाली का भयंकर रूप धारण कर लिया।
राजा दक्ष ने काली के रूप में सती को देखकर भगवान शिव का उपहास करते हुए उन्हें यज्ञ में सम्मिलित होने के अयोग्य बताया। अपने पिता दक्ष के द्वारा शिव के प्रति द्वेष, व्यंग्यपूर्ण और निंदाभरे शब्दों को सुनकर अतिक्रुद्ध सती ने उग्र होकर अपने ही समान रूप वाली छाया सती को उत्पन्न किया और उन्हें यज्ञ-कुंड का नाश करने का आदेश देकर अंतर्धान हो गईं।
छाया सती अट्टहास करते हुए देखते-देखते यज्ञ की अग्नि में प्रवेश कर गईं। उनके ऐसा करते ही वर्षा होने लगी और यज्ञ-कुंड की अग्नि बुझ गई। सभी देवता भयभीत हो गए। यज्ञ-मंडप श्मशान जैसा वीरान हो गया। अहंकारी राजा दक्ष ने पुनः यज्ञ शुरू करवाया, परंतु वह यज्ञ पूर्ण न हो सका। देवर्षि नारद द्वारा सती के भस्म होने का समाचार सुनकर भगवान शिव क्रोध और शोक से द्रवित हो गए। उन्होंने अपने सेनापति वीरभद्र को राजा दक्ष को दंडित करने का आदेश दिया। वीरभद्र ने दक्ष-यज्ञ को नष्ट कर दिया और दक्ष का सिर काट डाला। अन्य देवगणों को भी, जो महादेव भगवान शिव की निंदा सुन रहे थे, वीरभद्र ने दंड दिया। दक्ष-यज्ञ के रक्षक भगवान विष्णु को भी वीरभद्र से पराजित होना पड़ा। उनकी गदा चूर-चूर हो गई और सुदर्शन चक्र वीरभद्र के गले में सुशोभित हो गया। भगवान विष्णु हारकर सिर झुकाए खड़े रहे।
सती के शोक में भगवान शिव सामान्य पुरुष की तरह द्रवित हो रहे थे। उनकी आंखों से अविरल अश्रुधाराएं बह रही थीं। भगवान शिव ने यज्ञ-मंडप में जाकर सती के छाया शरीर को देखा। उन्होंने उसे अपने कंधे पर धारण कर लिया और पागलों की भांति विचरण करते हुए नृत्य करने लगे। उनके तांडव नृत्य से प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो गई। ऐसा देखकर देवताओं के आग्रह पर भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से छाया सती के शरीर के टुकड़े करने शुरू कर दिए। इस प्रकार छाया सती के शरीर के अग-प्रत्यग धरातल पर गिरने से 51 शक्तिपीठ बन गए।
शक्तिपीठ केवल वहीं हैं जहां मां सती के अंग-प्रत्यंग गिरे हैं। जिन स्थानों पर मां के आभूषण अथवा वस्त्र गिरे हैं-वहां पर उपपीठों की स्थापना हुई है, जो केवल 29 हैं। यहां शक्ति तत्वों का पूर्ण प्रभाव है।
सती के भिन्न-भिन्न अगं जिन स्थानों पर गिरे हैं वहां उन-उन शक्तियों की सिद्धि सरलता से होती है। जहां-जहां माता के अंग गिरे, वे स्थान दिव्य शक्तियों के केंद्र माने जाते हैं। वहां भी शक्ति तत्व का प्रकटीकरण सर्वाधिक है। अतः उन पीठों पर सिद्धियां शीघ्र प्राप्त होती हैं।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book